Bhu-Kanoon? उत्तराखंड भू-कानून क्या और क्यों?

26 जनवरी 1950 के दिन जब भारतीय संविधान लागू हुआ अनुच्छेद 370 भी तभी से इसका हिस्सा रहा, अनुच्छेद 371 असल में कई राज्यों को उनकी जमीन संस्कृति भाषा और स्वायत्तता को बनाए रखने के लिए कुछ विशेष अधिकार देती है। तब इस अनुच्छेद में महाराष्ट्र और गुजरात को कुछ विशेष कानूनी अधिकार दिए गए। फिर समय के साथ-साथ इनमें कई उपधाराएं जोड़ी गई, और तमाम अन्य राज्यों को भी इसमें शामिल किया गया, जैसे सन् 1962 के संशोधन के बाद इसमें अनुच्छेद 371 (A) बना जिसमें नागालैंड को विशेष अधिकार मिले सन् 1969 अनुच्छेद 371 (B) मैं असम को किसी से अधिकार मिले फिर 371 सी के जरिए मणिपुर और 371 (D) के जरिए आंध्र प्रदेश और ऐसी ही अन्य कई संशोधन से विभिन्न राज्यों को विशेषाधिकार समय-समय कर मिलते रहे।

उत्तराखंड भू-कानून/Bhu-Kanoon का इतिहास

90 के दशक में जब उत्तराखंड आंदोलन अपने चरण पर था आंदोलनकारी से पृथक राज्य ही नहीं, बल्कि उनकी मांग में यह भी शामिल था की पहाड़ की जमीन और यहां की संस्कृति को भी बचाया जाए और यहां के संस्कृति को बनाए रखने के लिए पूर्वोत्तर यानी नॉर्थ ईस्ट की तरह हमें भी अनुच्छेद 371 जैसी सुरक्षा दी जाए।
इस मांग को उठाने वालों में से प्रमुख तत्कालीन भाजपा विधायक मनोहर कांत ध्यानी भी शामिल थे, जिन्होंने बाकायदा अनुच्छेद 371 की मांग का प्रस्ताव राज्यसभा में ही रखा था ,अनुच्छेद 371 असल में कई राज्यों को उनकी जमीन संस्कृति भाषा और स्वायत्तता को बनाए रखने के लिए कुछ विशेष अधिकार देती है।

कई राज्यों में अपने मजबूत कानून बनाकर भी अपनी जमीनों को सुरक्षित किया, जैसे हमारे पड़ोसी राज हिमाचल प्रदेश एक उदाहरण है, जिसने अपने लिए विशेष एक्ट 1972 से जमीन की खरीद परोख्त में भी लगाम लगा दिया इस एक्ट की धारा 118 के अनुसार हिमाचल में किसी भी गैर कृषक को जमीन ट्रांसफर नहीं होगी, इसका मतलब यह भी हुआ कि वहां हिमाचल का रहने वाला गैर कृषक भी कृषि भूमि नहीं खरीद सकता। हिमाचल के बाहर का व्यक्ति वहां की जमीन लेना चाहता है तो उसे पहले सरकार से अनुमति लेनी होगी और अनुमति मिलने के बाद ही जमीन खरीद सकता है वह भी सिर्फ 500 वर्ग मीटर। इसी तरह पहाड़ी राज्य सिक्किम में भी पहाड़ी राज्य बचाने का काम सिक्किम रेगुलेशन ट्रांसफर आफ लैंड एक्ट 2005 के एक्ट नंबर 118 ऑफ 2005 के जरिए किया गया। इस एप्स में यहां तक प्रावधान है कि सिक्किम में सिर्फ सिर्फ लिम्बु या तवांग समुदाय में ही जमीन खरीदी या बेची जा सकती है इसके साथ ही जमीन बेचने वाले को कम से कम तीन एकड़ जमीन अपने पास रखनी होती है ताकि जमीन बेचने वाला खुद ही भूमिहीन ना हो जाए इस तरह विशेष कानून अन्य पहाड़ी राज्यों में भी है सिर्फ उत्तराखंड में ही खुला जमीनों का खेल चल रहा है की कोई भी आए और जमीन का मालिक बन जाए, लेकिन प्रदेश में जमीनों की खरीद के रास्ते हमेशा से खुला नहीं रहे हैं, साल 2002 में जब प्रदेश में नवनिर्वाचित सरकार का गठन हुआ तो तत्कालीन मुख्यमंत्री एन डी तिवारी के नेतृत्व में प्रदेश सरकार ने कुछ भू कानून बनाए उन दिनों उत्तराखंड में जमीनों से संबंधित मुख्यतः दो कानून प्रभावि थें।

  • 1- 1960 का कुमाऊं और उत्तराखंड जमीदारी इवोल्यूशन एक्ट जिसे कुजा कानून कहा जाता है।
  • 2- UPZALR (उत्तर प्रदेश जमीदारी इवोल्यूशन और लैंड रिफॉर्म एक्ट) -जिसे उत्तराखंड करने के बाद यहां की सरकार ने कुछ संशोधन करते हुए अपना लिया एन. डी. तिवारी सरकार ने किसी एक्ट ZALR में हिमाचल की तरह कानून का प्रावधान बनाया की उत्तराखंड में कोई भी गैर कृषक जिसे आम बोल चल में बाहरी व्यक्ति कहा जाता है वह 500 वर्ग मीटर से ज्यादा जमीन यहां नहीं खरीद सकेगा इस कानून को 2008 में खंडूरी सरकार ने कुछ और मजबूत किया और उन्होंने 500 वर्ग मीटर की सीमा को और काम करके 250 वर्ग मीटर तक सीमित कर दिया।

इस कानून में प्रारंभ से ही एक महत्वपूर्ण कमी रही, जो कि इसकी धारा 2 में निहित थी। इस धारा के अनुसार, यह कानून किसी भी नगर निगम, नगर पालिका या नगर पंचायत पर लागू नहीं होगा। इस कमी का लाभ विभिन्न सरकारों ने उठाया। जमीनों की खरीद को बढ़ावा देने के लिए कई ग्राम सभाओं को नगर पंचायत या नगर पालिका में परिवर्तित किया गया, जिससे यह क्षेत्र इस कानून के दायरे से बाहर हो गए और बिक्री के लिए उपलब्ध कराए गए। हालांकि, जमीनों के असली खेल का आरंभ अभी बाकी था, जो कि पिछली भाजपा सरकार के दौरान हुआ, जब त्रिवेंद्र सिंह रावत ने प्रदेश की बागडोर संभाली।

6 अक्टूबर 2018 को प्रदेश सरकार ने (ZALR Act 152/2) के तहत पहाड़ों में भूमि खरीदने की अधिकतम सीमा को समाप्त कर दिया। इसके साथ ही, कुछ कृषक होने की शर्त को भी खत्म कर दिया गया। इस संशोधन में धारा 143 A को जोड़कर कृषि भूमि के उपयोग में परिवर्तन की प्रक्रिया को सरल बना दिया गया। इसका अर्थ यह है कि अब कोई भी व्यक्ति, जो आर्थिक रूप से सक्षम है, पहाड़ों में किसी भी योगी की भूमि को खरीद सकता है और उसका उपयोग अपनी इच्छानुसार कर सकता है।

 

उत्तराखंड में भूमि कानून सुधार की मांग कई प्रमुख मुद्दों से उठती है:

  • भूमि अधिकार और स्वामित्व: भूमि स्वामित्व की स्पष्टता और सुरक्षा को लेकर चिंताएं हैं, विशेष रूप से स्थानीय निवासियों और हाशिए पर रहने वाले समुदायों के लिए। कुछ लोगों को लगता है कि मौजूदा कानून उनके अधिकारों की पर्याप्त रूप से रक्षा नहीं कर सकते हैं या विवादों का प्रभावी ढंग से समाधान नहीं कर सकते हैं।
  • भूमि उपयोग और विकास: उत्तराखंड में तेजी से विकास और शहरीकरण के कारण भूमि उपयोग को लेकर झगड़े बढ़ गए हैं। ऐसे कानूनों की मांग हो रही है जो पर्यावरण संरक्षण और स्थानीय जरूरतों के साथ विकास को संतुलित करें।
  • कृषि भूमि की सुरक्षा: किसान और कृषि समुदाय व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए कृषि भूमि के रूपांतरण के खिलाफ सुरक्षा चाहते हैं, जिसके बारे में उनका मानना ​​है कि यह उनकी आजीविका और खाद्य सुरक्षा को कमजोर करता है।
  • पर्यावरण संबंधी चिंताएँ: उत्तराखंड का अनोखा भूगोल इसे प्राकृतिक आपदाओं के प्रति संवेदनशील बनाता है। ऐसे कानूनों की मांग की जा रही है जो यह सुनिश्चित करें कि भूमि उपयोग से पर्यावरणीय जोखिम न बढ़े और पारिस्थितिक संतुलन का सम्मान हो।
  • स्थानीय स्वायत्तता: भूमि प्रबंधन पर अधिक स्थानीय नियंत्रण की इच्छा है, जो विकेंद्रीकरण के लिए दबाव और निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में स्थानीय समुदायों की अधिक भागीदारी को दर्शाती है।

प्रभावी रूप से तैयार किए गए भूमि कानूनों के द्वारा इन समस्याओं का समाधान करने से तनाव में कमी आ सकती है और यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि भूमि का उपयोग विकास और संरक्षण दोनों उद्देश्यों को समर्थन प्रदान करता है।

सरकार को इसके लिए कोई कदम उठाना चाहिए?

उत्तराखंड में भूमि कानूनों पर विरोध प्रदर्शन, अन्य क्षेत्रों की तरह, सरकार की प्रतिक्रिया और प्रदर्शनकारियों की दृढ़ता सहित कई कारकों के आधार पर अवधि में भिन्न हो सकते हैं। ऐसे आंदोलनों की अवधि अक्सर इस बात पर निर्भर करती है कि सरकार उठाए गए चिंताओं को कितनी जल्दी और प्रभावी ढंग से संबोधित करती है।

सरकार को लंबे समय तक अशांति को रोकने के लिए मुद्दों के समाधान के लिए कदम उठाने पर विचार करना चाहिए। इसमें शामिल हो सकता है:

  • संवाद में भागीदारी: हितधारकों की समस्याओं को समझने और एक साझा समाधान खोजने के लिए उनके साथ उनके साथ खुली चर्चा।
  • नीति में बदलाव: भूमि कानूनों का पुनरावलोकन करना और उन्हें इस तरह से संशोधित करना कि वे अधिक न्यायपूर्ण और स्वीकार्य बन सकें।
  • पारदर्शिता: परिवर्तनों के कारणों और उनके स्थानीय समुदायों पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में स्पष्ट और सटीक जानकारी उपलब्ध कराना। 
  • सामुदायिक भागीदारी: स्थानीय समुदायों को निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में शामिल करना, ताकि उनकी आवश्यकताओं और विचारों का सम्मान किया जा सके।

 प्रभावी कदम उठाने से समस्याओं का समाधान तेजी से किया जा सकता है और विरोध प्रदर्शनों की अवधि को कम किया जा सकता है।

 

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